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खुद से बात (6)
घर से बाहर निकलते ही अन्दाज़-ए-मौसम कुछ बदला-बदला सा लगा। दो कदमों की चहलकदमी ने अभी आपस में तालमेल बिठाना शुरू ही किया था कि तन पर भीगी-भीगी नीर की बूँदों का असर महसूस हुआ। पलकें आसमाँ की तरफ उठी। उसी नीर से भरे हुए बादल, बरसात बन बरसने को आतुर, उन बादलों की छाँव से गुज़रता हुआ ढेर पक्षियों का एका, शाम ढले अपने घर लौटता दिखा। सर्दी से ठिठुरती फिज़ा और उस पर ठंडी-ठंडी बूँदों का बरसात बन झमाझम बरसना हुआ।
घर से दूर ले जाती मुझे, वह सड़क, गहराती शाम की, बुझती-जलती, किनारे लगी ऊँची रोशनियों से, अपने भीगे तन को कभी छुपा तो कभी दिखा रही थी। मुझसे ही क्या, बरसात की वह ठिठोलियाँ क़ायनात की हर एक शख्सियत के साथ खेल रही थी। सर्दी के मौसम की वह पहली बारिश यकीनन गुनगुन कुछ गुनगुना रही थी।
रजनी अरोड़ा
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