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खिड़की के बाहर का दृश्य बहुत ही लुभावना था। शाम की तरुणाई ढल चुकी थी और रात की असीम गहराई अपने पाँव पसारने को आतुर थी। अक्सर ही उजाले और अँधेरे का यह चिर मिलन देखने के लिए मैं खिड़की के पास आ खड़ी हो जाती थी। फिर उस सर्द समय तो मन्द - शीतल पवन के साथ डोलते - झुलते जल-बूँद भाँति बर्फ भी बरस रही थी। कब मैं उस मनमोहक दृश्य का हिस्सा बन गई — मुझे स्वयं मालूम न पड़ा।
अचानक हुई बादलों की तेज़ गड़गड़ाहट ने मुझे चौंकाया। आवाज़ की ऊंचाई इतनी घनिष्ठ थी कि मेरी खिड़की का काँच अपने से जुड़े फ्रेम में भीतर ही भीतर हिल गया। हल्का सा सहम गया मेरा दिल और जब मेरी नज़र आसमान पर पड़ी तो देखा कि अनेक स्याह बादलों का जमावड़ा गहरे नीले आसमान को पूरी तरह ढक चुका हैं। यूँ लगा जैसे कि अमानवीय बादलों के जोश का स्तर अथाह हो चुका हो। बहती हुई मन्द पवन अचानक ही जैसे क्रोधित हो गई हो। उसकी गति में तेज़ी और उसकी दिशा के रूख में बेखौफ बदलाव आ चुका था। बर्फ की वह जल-बूँदें अब किसी को भी आहत करने के लिए तैयार हो चुकी थी। अचानक हुई रोशनी और कड़कड़ की असीम आवाज़ के साथ उन्हीं स्याह बादलों से निकल धरती की ओर पूरे आवेग से बढ़ी एक बिजली। जैसे अपनी ताकत से वह धरती का सीना फाड़ चुकी हो।
वह दृश्य अब मनोरम न रह गया था। जीवन की अनेक लुभावनी कल्पनाओं की तरह एक मिराज के जैसे लुभाता यह दृश्य भी उन कल्पनाओं में न दिख पाने वाले असत्य की तरह, अपने भीतर छिपाए एक कुरूप तूफान की दस्तक दे रहा था।
अपने खिड़की के काँच को बन्द करते हुए, उसे दोनों तरफ से फ्रेम से जोड़ते हुए, मैंने स्वयं के अनचाहे डर को सँभाला और खिड़की के काँच के साथ स्वयं को भी सुरक्षित करने का प्रयास किया।
रजनी अरोड़ा
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